शुक्रवार, 27 जुलाई 2007

कगार पर फिसलन

बात 1988 की है,तब मैं कोलकाता के फोर्ट विलियम सेंट्रल स्कूल में पढ़ा करता था ।सवेरे-सवेरे जब हम स्कूल पहुंचते तो वंहा प्रेयर के साथ समाचार पढने और सुनने का रिवाज़ था। उस समय समाचार के बारे में जो मेरी समझ बनी वो यही थी कि यह किसी तरह का गंभीर विषय है जिसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। ऐसा इसलिए भी था क्योंकि समाचार पढ़ने वाले स्टूडेंट आमतौर पर ग्यारहवीं या बारहवीं क्लास के होते थे। ग्यारहवीं और बारहवीं क्लास के स्टूडेंट्स के बारे में हमारा ये मानना था कि स्कूल में उन्हें उन कामों की जिम्मेदारी दी जाती है जो हमारे लिए असंभव जैसा था। बदलते वक्त के साथ कक्षायें बदली। कुछ शब्दों के मायने और ज्यादा स्पष्ट हुए। समय के साथ समाचार, सिनेमा और सर्कस जैसे शब्दों के बीच का अंतर और साफ समझ आने लगा। आज मैं एक पत्रकार हूं। पर जिस तरह समाचार का विषय और उसकी परिभाषा बदल रही उससे मैं व्यथित हूं। आज मैं फिर से समाचार, सिनेमा और सर्कस के बीच के अंतर को समझने की कोशिश कर रहा हूं, क्योंकि समाचार में जो आजकल दिख रहा है उससे में भ्रमित हो गया हूं। समाचार का उद्देश्य(लक्ष्य) शायद बदल चुका है। टीआरपी का सांड इन दिनों हर समाचार चैनल के न्यूजरूम में दौड़ता है। मालिकान की एक अदद ख्वाहिश टीआरपी के सांड को और तगड़ा होते देखना है। ये सारी ही बातें खासतौर पर हिन्दी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए सटीक बैठ रही हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि हिन्दी इलेक्ट्रोनिक मीडिया की दशा और दिशा की जिम्मेदारी किसकी है? तमाम लोगों के मन में जो अनुत्तरित प्रश्न हैं उनका उत्तर देने की जिम्मेदारी किसकी है? टीआरपी के सांड की पीठ पर बैठकर समाचार औऱ सर्कस के बीच की दूरी को पाटने की कोशिश की जा रही है। इस परिभाषा में सनसनीखेज विजुअल को दर्शकों के सामने कौतुहल बनाकर पेश किया जा रहा है। समाचार चैनलों में साल, महीना, दिन और घंटे की बजाय हर पल दर्शकों को बांधने की कोशिश हो रही है। इस चक्कर में हम दिन-ब-दिन अपने मयार से गिरते जा रहे हैं। हद तो ये हो गई है कि अब लोग डिस्कवरी जैसे चैनलों और यू ट्यूब जैसी वेबसाइट से विजुअल चेपकर......जी हां मीडिया की भाषा में चेपकर अपना धंधा चमकाने की जुगत में हैं। लोगों को उन चंद मिनटों के विजुअल के पीछे की शोध और मकसद समझ में नहीं आता। जिन चैनलों की पहुंच उन विजुअल तक नहीं है वो अपने रिपोर्टरों को इस तरह के विजुअल के लिए डंडा करके रखते हैं। बेचारे रिपोर्टरों का काम अब मुख्य रुप से ऐसे विजुअल की तलाश करना होता है जो लोगों के बीच कौतुहल पैदा करें। मतलब ऐसी तस्वीरें जो दर्शकों को चुंबक की तरह अपनी तरफ खींच लें। मान लीजिए इन हालातों में अगर कोई समाचार चैनल किसी विषय विशेष पर कोई अच्छा पैकेज तैयार करके आन एयर करता है तो पहले दर्शक देखेगा, सुनेगा और फिर जाकर समझेगा। ठीक इसी समय अगर किसी दूसरे चैनल पर सांप, भूत या खून का विजुअल हो तो दर्शक अचानक उसे देखने के लिए रुक जाता है। ये है विजुअल का गुरुत्वाकर्षण। इस समय जब मैं ये लाइनें लिख रहा हूं तो एक समाचार चैनल का स्लग "भूख लगी है ब्लेड दो" है। आश्चर्य की बात है इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में काम करने वाले 95 प्रतिशत लोग इन वजहों से खुद को कोसते हुए मिलते हैं। मसलन मेरे एक रिपोर्टर दोस्त का कहना है कि मेरे चैनल के इंदौर ब्यूरो के रिपोर्टर ने चार सांप और एक सपेरा अपने खर्चे पर पाल रखा है और वो समय-समय पर चैनल की जरुरतों को पूरा करता है। दूसरे रिपोर्टर दोस्त की आखों देखी और ज्यादा दिल दहलाने वाला था। एक समाचार चैनल को उस लड़की का विजुएल मिला जिसका बलात्कार हुआ था। सनसनी परोसने के चक्कर में उस चैनल ने विजुअल को इतना ही ब्लर किया कि जिससे ब्लर करने के बाद भी उसको पहचाना जा सके। नतीजतन लड़की को बेमौत मरना पड़ा। आजकल बिलासपुर का राजेश भी उन्हीं विजुअल की फेहरिस्त में है। राजेश को देख और सुनकर सिर्फ दो ही बातें लगती हैं, पहला ये कि राजेश की मानसिक हालत ठीक नहीं है और दूसरा ये कि वो प्रतिभा का धनी है .....दोनों में से कोई भी बात सही हो पर हम पल-पल के इस खेल में हारते जा रहे हैं। अगर राजेश बीमार है तो उसे किसी डॉक्टर के पास होना चाहिये और अगर वो प्रतिभा का धनी है तो भी उसकी जगह कम से कम समाचार चैनल का स्टूडियो तो नहीं है। पर नहीं, हम तो कौतुक परोसना चाहते हैं। क्या हम उससे तब तक सवाल पूछेंगे जब तक उसका खुद पर से भरोसा न उठ जाए या जब तक उसे ये ना लगे कि सामने वाला जो कह रहा है वो सही है। वास्तव में हिन्दी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इस वक्त संक्रमण काल से गुजर रहा है। दूसरे शब्दों में कहूं तो हिन्दी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कगार की फिसलन के दौर से गुजर रहा है। इस दौर में जब विकास रफ्तार पकड़ रहा है, आए दिन नए-नए समाचार चैनल खुल रहे हैं। ऐसे में उन सिपहसलारों के चेहरे पर शिकन गहरा गई है जिनके सर माथे मालिकान और टीआरपी के सांड को खुश करने का जिम्मा है। इसके लिए ये सिपहसलारों चुनौतियों से भागकर आसान रास्ता चुन रहे हैं। उस रास्ते पर इन सिपहसलारों की मुलाकात भूत, सांप या दूसरी तिलिस्मी ताकतों से होती है। यह कई मायने में पाषाण काल की उन कहानियों की तरह है जिसमें एक देश का राजा दूसरे देश को जीतने के लिए तंत्र-मंत्र और तिलस्म का सहारा लेता था, या ये चंद्रकांता उपन्यास के अय्यारों की तरह है जहां जीत-हार के लिए सबकुछ जायज था। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कगार की इस फिससन के दौर से आगे नहीं निकल पा रहा है। कोई भी शख्स कामयाबी के लिए नए रास्ते ईजाद नहीं कर रहा है, हर कोई कगार की इस फिसलन पर फिसलता ही जा रहा है। शायद आने वाले समय में इन हालातों के मद्देनजर मीडिया घराना हिन्दी चैनलों की दुर्दशा देख पत्रकारिता के मुल्यों को बचाने के लिए चैरेटी में हिन्दी चैनल चलाए......